काशी की 222वीं रथयात्रा: परंपरा, भक्ति और उल्लास का महोत्सव
(जनवार्ता डिजिटल)
वाराणसी में तीन दिवसीय ऐतिहासिक रथयात्रा मेला भक्ति और उत्सव का अनुपम उदाहरण बनकर उभरा है। अस्सी स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर से आरंभ हुई यह यात्रा 222 वर्षों से अनवरत चली आ रही है। लाखों श्रद्धालुओं की उपस्थिति के कारण इसे ‘लक्खा मेला’ भी कहा जाता है।
इस वर्ष रथयात्रा की शुरुआत मंदिर के पट खोलकर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विशेष श्रृंगार से हुई। डोली यात्रा के उपरांत भव्य रथ पर तीनों विग्रहों की स्थापना की गई, जिसके बाद पारंपरिक शंखध्वनि, ढोल, नगाड़ों और पुष्पवर्षा के साथ यात्रा नगर भ्रमण पर निकली।
रथ लकड़ी से निर्मित अष्टकोणीय संरचना वाला होता है, जिसकी ऊंचाई 18 फीट और चौड़ाई 21 फीट होती है। भक्तगण स्वयं रथ को रस्सों से खींचते हैं, जिसे पुण्य का कार्य माना जाता है। मार्ग में जगह-जगह श्रद्धालु प्रसाद, शीतल जल और विश्राम की व्यवस्था करते हैं।
मेला स्थल पर बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिए विविध स्टॉल लगे हैं—खासकर पारंपरिक नानखटाई, परवल की मिठाई और अन्य पकवानों का विशेष आकर्षण देखा गया।
इस ऐतिहासिक आयोजन की नींव 1802 में पुरी से आए ब्रह्मचारीजी और काशी के पं. बेनीराम वंश ने रखी थी। उनके प्रयासों से यहां जगन्नाथ मंदिर की स्थापना हुई और रथयात्रा एक वार्षिक परंपरा के रूप में विकसित हुई।
प्रशासन की ओर से तीन दिवसीय मेले को सफल बनाने हेतु व्यापक इंतजाम किए गए हैं। सुरक्षा के लिए पुलिस बल के साथ-साथ सीसीटीवी कैमरे, ट्रैफिक डायवर्जन और स्वास्थ्य सेवाएं भी सुनिश्चित की गई हैं।
रथयात्रा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि काशी की जीवंत सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। यह आयोजन आध्यात्मिकता, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक विरासत का अद्भुत संगम है, जो हर वर्ष देशभर के श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है।
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