चौथे स्वरुप माँ कूष्मांडा के दर्शन मात्र से पूरी होती हैं सारी मनोकामनाएं

चौथे स्वरुप माँ कूष्मांडा के दर्शन मात्र से पूरी होती हैं सारी मनोकामनाएं
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शारदीय नवरात्रि का आज चौथा दिन है। आज देवी भगवती के चौथे स्वरूप मां कूष्मांडा की पूजा-अर्चना होती है। काशी में इनका मंदिर कैंट रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर की दूरी पर दुर्गाकुंड क्षेत्र में है। दुर्गाकुंड स्थित दुर्गा माता मंदिर में भोर से ही दर्शन-पूजन के लिए देवी कूष्मांडा के भक्तों का तांता लगा हुआ है।

पौराणिक मान्यता है कि जब सृष्टि नहीं थी तो तब देवी भगवती के कूष्मांडा स्वरूप ने ही सृष्टि का विस्तार किया था। देवी कूष्मांडा प्रकृति और पर्यावरण की अधिष्ठात्री हैं। कूष्मांडा देवी की आराधना के बगैर जप और ध्यान पूरा नहीं माना जाता है।

दुर्गा माता मंदिर के महंत दीपू दुबे ने बताया कि माता को गुड़हल का फूल, नारियल और चुनरी चढ़ाई जाती है। देवी कूष्मांडा की आराधना ‘या देवी सर्वभूतेषु तुष्टि रुपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:…’ मंत्र का जाप करके की जाती है। देवी कूष्मांडा के मंदिर में दर्शन-पूजन से भक्तों की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।

देवी भगवती के कूष्मांडा रूप में तृप्ति और तुष्टि दोनों हैं। आज सब्जी और अन्न का दान फलदायी माना जाता है। देवी कूष्मांडा ने शाकंभरी का रूप धर कर धरती को शाक-सब्जी से पल्लवित किया था और शताक्षी बन कर उन्होंने असुरों का संहार भी किया था।

दुर्गा माता मंदिर का उल्लेख ‘काशी खंड’ में भी है। लाल पत्थरों से नागर शैली में बने इस मंदिर के एक तरफ दुर्गा कुंड है। मंदिर के समीप ही बाबा भैरोनाथ और लक्ष्मी, सरस्वती व मां काली की मूर्तियां स्थापित हैं। इस मंदिर के अंदर एक विशाल हवन कुंड है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 17वीं शताब्दी में रानी भवानी ने कराया था।

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मान्यता है कि शुंभ-निशुंभ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने इसी मंदिर में विश्राम किया था। इस मंदिर में प्रतिमा के स्थान पर देवी भगवती के मुखौटे और चरण पादुकाओं की पूजा होती है। इय मंदिर में यांत्रिक पूजा भी होती है। इस मंदिर का स्थापत्य बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र यानी बीस कोण की यांत्रिक संरचना जिसके ऊपर मंदिर की आधारशिला रखी गई है।

इस मंदिर को लेकर एक और कहानी यह भी है कि अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन का विवाह काशी नरेश सुबाहु की बेटी से करवाने के लिए मां ने सुदर्शन के विरोधी राजाओं का वध करके उनके रक्त से कुंड को भर दिया था। वही रक्त कुंड कहलाता है। बाद में राजा सुबाहु ने यहां दुर्गा मंदिर का निर्माण करवाया और 1760 ईस्वी में रानी भवानी ने इसका जीर्णोद्धार कराया था।

देवी ने काशी नरेश को दर्शन देकर उनकी पुत्री का विवाह राजकुमार सुदर्शन से करने का आदेश दिया और कहा कि किसी भी युग में इस स्थल पर जो भी मनुष्य सच्चे मन से मेरी आराधना करेगा मैं उसे साक्षात दर्शन देकर उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी करूंगी। कहा जाता है कि उस स्वप्न के बाद राजा सुबाहु ने वहां मां भगवती का मंदिर बनवाया जो कई बार के जीर्णोद्धार के साथ आज वर्तमान स्वरूप में श्रद्धालुओं की आस्था का एक प्रमुख केंद्र है।


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