शरद न होते तो बिहार में लालू का राज नहीं आता, जानें कैसे दोनों के रास्ते हुए अलग

शरद न होते तो बिहार में लालू का राज नहीं आता, जानें कैसे दोनों के रास्ते हुए अलग
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नई दिल्ली। शरद यादव के प्रयासों से ही लालू प्रसाद बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंच पाए थे। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद उन्होंने पहले तो लालू को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाने में आगे बढ़कर सहयोग किया, फिर 1990 के आम चुनाव में कांग्रेस के पराभव के बाद खंडित जनादेश के बीच लालू को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भी मैदान सजाया। तब जनता दल था। लालू ने पहले शरद यादव के सहारे भाजपा के सहयोग से बिहार में सरकार बनाई। उस वक्त जनता दल में तीन खेमे थे। पहले खेमा के मुखिया तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे। दूसरा खेमा चंद्रशेखर का था और तीसरे खेमे को देवीलाल और शरद यादव मिलकर संभाल रहे थे। बिहार में देवीलाल के मुख्यमंत्री प्रत्याशी लालू प्रसाद थे। वीपी सिंह के रामसुंदर दास और चंद्रशेखर के रघुनाथ झा थे। देवीलाल के लेफ्टिनेंट के रूप में शरद यादव ने ही लालू को आगे बढ़ाया।

जब संकट मोचक बने थे शरद..
सात महीने बाद ही लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू की सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया तो शरद (Sharad Yadav Dies ) फिर संकट मोचक बनकर सामने आए। झामुमो और वामदलों के सहयोग से लालू की सरकार बचाने की पहल की।आगे चलकर बिहार में समाजवादी राजनीति दो धाराओं में बंट गई। एक का नेतृत्व शरद यादव के हाथ रहा तो दूसरे धड़े का नेतृत्व लालू ने किया। इस दौरान शरद ने नीतीश कुमार और जार्ज फर्नांडिस को साथ लेकर कई अवसरों पर देश की राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित किया।

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बाद में लालू से अलग हो गए शरद
बिहार में जब लालू का कद और केंद्र की राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ा तो शरद की सियासत हाशिये पर जाने लगी। जब दोनों के बीच तनातनी बढ़ने लगी तो लालू ने 1997 में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नाम से अलग पार्टी बना ली। तब लालू जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। केंद्र में जनता दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी। आईके गुजराल प्रधानमंत्री थे। पार्टी में लालू के एकाधिकार से शरद को परेशानी हो रही थी, जिसके बाद उन्होंने रंजन यादव को साथ लेकर लालू को अध्यक्ष पद से हटाने की तैयारी कर ली थी। लालू इससे अनजान थे। उन्हें दोबारा चुने जाने का भरोसा था, किंतु शरद ने दूसरे प्रदेशों के बड़ी संख्या में अपने समर्थित सदस्यों को राष्ट्रीय परिषद में जोड़ लिया और लालू को हटाने की तैयारी कर ली। लालू जब दिल्ली पहुंचे तो उन्हें लगा कि शरद के रहते वह चुनाव नहीं जीत सकते हैं तो भी उन्होंने नामांकन कर दिया। शरद को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने नामांकन वापसी के लिए दबाव बनाया तो लालू ने जनता दल को तोड़कर अपना रास्ता अलग कर लिया।

नीतीश के भी संरक्षक रह चुके थे शरद
शरद समाजवादी राजनीति के पुरोधा नेताओं में शामिल रहे हैं। पांच दशक से भी ज्यादा बेबाक और सक्रिय रहकर केंद्रीय राजनीति की। खासकर बिहार की राजनीति में उनकी विशिष्ट पहचान थी और जनता के बीच लोकप्रिय भी थे। वह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार समेत कई नेताओं के संरक्षक की भूमिका में रह चुके थे। किंतु बाद में नीतीश कुमार से संबंधों में खटास आ जाने कारण अलग-थलग पड़ गए थे। अस्वस्थता के चलते राजनीतिक गतिविधियां भी शिथिल पड़ गई थीं।

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मधेपुरा में लालू प्रसाद को हरा बिहार में स्थापित हुए थे शरद यादव
माधबेंद्र, भागलपुर। अपनी जन्मभूमि मध्य प्रदेश की राजनीतिक जमीन छोड़ आखिर शरद यादव बिहार क्यों आए यह प्रश्न बार-बार उठता रहा। एक साक्षात्कार में शरद यादव ने कहा था कि मध्य प्रदेश के सामाजिक परिवेश में उनकी राजनीतिक यात्रा मुश्किल भरी होती। इसलिए जबलपुर छोड़कर उन्होंने उत्तर प्रदेश की राह पकड़ी और फिर वहां से बिहार का रुख किया। इसके बाद मधेपुरा को अपनी कर्मभूमि बनाकर यहीं के होकर रह गए। वह 1991 से 2019 तक हुए लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक चार बार मधेपुरा से जीते। 1999 में उन्होंने अपने मित्र रहे लालू प्रसाद यादव को ही लोकसभा चुनाव में हरा दिया। इस जीत ने उनको बिहार में एक नेता के रूप में स्थापित कर दिया।


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