जेल में मेहतर कैदी करे सफाई,ब्राह्मण बनाए खाना,जिस पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने सुनाया…
नई दिल्ली। ब्राह्मण पवित्र धागा’ पहन सकता है या मुसलमान को एक निश्चित लंबाई की पतलून पहनने का हक है। खाना जेल अधिकारी की देखरेख में उपयुक्त जाति के कैदी रसोइयों द्वारा पकाया जाएगा। मेहतर या हरि जाति से सफाईकर्मी चुने जाने चाहिए। अगर जिले की प्रथा के अनुसार वे इसी तरह के काम करते हैं या किसी भी जाति से अगर कैदी स्वेच्छा से यह काम करने के लिए तैयार हो तो उसे शौचालयों की साफ-सफाई में लगाया जा सकता है। ये बातें यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल समेत देश के कई राज्यों के जेल मैनुअल में कही गई हैं। यानी जेलों के भीतर भी जाति व्यवस्था बेहद गहराई से पैबस्त है। एक रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद जब राजस्थान सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव किया तो देश के बाकी राज्यों में इस तरह के बदलाव की बात उठी। आइए- जानते हैं कि क्या है मामला, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने इतना सख्त रुख अपनाया है। क्या हैं जेल मैनुअल और उसे लेकर पूरे देश में एकसाथ बदलाव क्यों नहीं हो पा रहा है।
जब सीजेआई यूपी सरकार से बोले…
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए एडवोकेट्स ने कहा कि उनके यहां की जेलों में जाति के आधार पर किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं है और काम का बंटवारा किसी भी कैदी की फिजिकल और मेंटल फिटनेस के आधार पर किया गया है। इस जवाब को पढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने सख्त लहजे में कहा कि मेहतर वर्ग से आप का क्या अर्थ है…क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वो इस काम के आदी हो गए हैं? नियम 158 में मैला ढोने के कर्तव्य का जिक्र है। यह मैला ढोने का कर्तव्य क्या है? इसमें मैला ढोने वालों की जाति का उल्लेख है। इसका क्या मतलब है? सीजेआई ने कहा,’जेल में जो कोई कैदी है…’ मैं इस हिस्से को नहीं पढ़ना चाहता हूं। इस मामले में हम जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण की भूमिका तय करेंगे।
10 राज्यों से मांगा था जवाब,5 ने ही दिया
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु समेत 10 राज्यों से जेल के अंदर जातिगत भेदभाव और जेलों में क़ैदियों को जाति के आधार पर काम दिए जाने को लेकर जवाब मांगा है। हालात ये है कि जनवरी में इस मामले की सुनवाई के छह महीने बीतने के बाद भी केवल उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने ही अपना जवाब कोर्ट में दाखिल किया। यह पूरा मामला पत्रकार सुकन्या शांता के प्रयासों की वजह से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। इस मामले में चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ सुनवाई कर रही है।
यूपी और उत्तराखंड की जेलों में हालात बदतर
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की जेलों पर 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी ठूंसे जा रहे हैं। कैदियों की भीड़ क्षमता से 130 फीसदी ज्यादा हो चुकी है। यानी औसतन 10 लोगों के रहने लायक जगह में 13 कैदी रह रहे हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश में यह औसत 208 फीसदी है, जबकि उत्तराखंड की जेलों में यह औसत 300 फीसदी है। देश में अभी 5,73,000 कैदी जेलों में बंद हैं, जिसमें करीब 75 फीसदी रिमांड या हिरासत की वजह से रखे गए हैं और उनका ट्रायल चल रहा है।
दरअसल, जनवरी में सुप्रीम कोर्ट में दी गई जनहित याचिका यूपी, मध्य प्रदेश, दिल्ली और तमिलनाडु की जेलों में जाति की सड़न को उजागर करती है, जहां खाना पकाने का काम प्रमुख जातियों को आवंटित किया जाता है। वहीं, विशिष्ट निचली जातियों को झाड़ू लगाने और शौचालयों की सफाई जैसे छोटे काम सौंपे जाते हैं।
अनुच्छेद 21 का उल्लंघन
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट शिवाजी शुक्ला कहते हैं कि जनहित याचिका में कहा गया है कि देश के कई राज्यों की जेलों में भेदभावपूर्ण प्रथाएं कायम हैं, जहां जाति के आधार पर ही काम का बंटवारा होता है। यहां तक कि बैरकों में भी जाति के आधार पर ही रखा जाता है। जाति-आधारित काम का बंटवारा औपनिवेशिक भारत का अवशेष माना जाता है और इसे अपमानजनक एवं कष्टकर माना जाता है। यह कैदियों के सम्मान के साथ जीवन जीने के अधिकार यानी संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है।
शिवाजी शुक्ला के अनुसार, जो याचिका दी गई है, उसमें कैदियों के मौलिक अधिकारों पर सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1978) मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला दिया गया है, जिसमें कहा गया था कि महज कैदी होने से कोई व्यक्ति मौलिक अधिकार या समानता के अधिकार खो नहीं देता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने पाया कि 10 से अधिक राज्यों जेल मैनुअल जाति आधारित भेदभाव और जबरन काम का बंटवारा करते हैं। ये राज्य हैं- उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, केरल, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, पंजाब और तमिलनाडु शामिल हैं। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस देकर राज्यों और केंद्र से चार हफ्ते के भीतर जवाब मांगा था।
अंग्रेजों के बनाए 130 साल पुराने कानून ढो रहे हम
शिवाजी शुक्ला बताते हैं कि भारत की जेलों में 130 साल पुराने कानून के मुताबिक की कामकाज होता आ रहा है, जिसे बदलने की जरूरत है। अंग्रेजी राज की औपनिवेशिक विरासत में निहित भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली मुख्य रूप से सुधार या पुनर्वास के बजाय सजा पर ध्यान केंद्रित करती है। ये जेल मैनुअल ब्रिटिश हुकूमत के बनाए ‘जेल अधिनियम,1894’, कानूनी ढांचे की पुरानी प्रकृति को बयां करता है। इन्हीं खामियों को उजागर करते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आदर्श कारागार अधिनियम, 2023 शामिल किया, जिसमें मॉडल जेल मैनुअल का जिक्र है।
2013 के अधिनियम में मैनुअल स्कैवेंजर्स की प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद जेल मैनुअल के अनुसार, जेलों में जातिगत भेदभाव और मैला ढोने की अनुमति देता है। इसमें शौचालयों, खुली नालियों और सीवरों से मानव मल और अन्य अपशिष्ट पदार्थों को मैन्युअल रूप से साफ करने, संभालने और निपटाने की प्रथा को बढ़ावा मिलता है।
नेल्सन मंडेला नियम क्या है,जिसे यूएन ने अपनाया
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2015 में नेल्सन मंडेला नियमों को अपनाया, जिसमें सभी कैदियों के लिए सम्मान एवं गैर-भेदभाव पर बल दिया गया। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों को नेल्सन मंडेला नियमों के आधार पर मॉडल जेल मैनुअल, 2016 को अपनाने की सलाह दी थी। इसका नाम दक्षिण अफ्रीका के सुधारवादी नेता और पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के नाम पर रखा गया है।
पूरे देश में एक जैसा जेल मैनुअल क्यों नहीं,क्या है अड़चन
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट शिवाजी शुक्ला बताते हैं कि जेल राज्य का विषय है। ऐसे में केंद्र सरकार के जेल मैनुअल मॉडल को अपनाने में राज्य पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। साथ ही देशभर की जेलों के लिए एक जैसा कानून भी नहीं बन पाया है। हालांकि, संसद चाहे तो इस बारे में सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के अनुसार कानून बना सकती है। मॉडल जेल मैनुअल में कहा गया है कि जेल में जाति या धर्म के आधार पर रसोई का प्रबंधन या भोजन पकाने पर पूरी तरह पाबंदी रहेगी। साथ ही कैदी को उसकी जाति या धर्म के आधार पर किसी भी तरह के विशेष व्यवहार पर भी रोक है।
दिल्ली,गोवा,महाराष्ट्र की जेलों में अमानवीय प्रथाएं हटीं
कई राज्यों में जेलों में अमानवीय और असंवैधानिक प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया है। दिल्ली, गोवा, महाराष्ट्र और ओडिशा ने इस ओर कई कदम भी उठाए, मगर पूरी तरह से मानवीय सुधार अभी भी दूर की कौड़ी है। दंड के तौर पर बेड़ियों और कोड़ों के इस्तेमाल करने जैसी कई अमानवीय प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया है। कुछ राज्यों की जेलों में जाति आधारित व्यवसाय भी खत्म कर दिए गए हैं।