गिद्धों के लिए क्यों नहीं छोड़ी साइरस की पार्थिव देह:वर्ली में हुआ दाह-संस्कार

गिद्धों के लिए क्यों नहीं छोड़ी साइरस की पार्थिव देह:वर्ली में हुआ दाह-संस्कार
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नई दिल्ली। टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री का मुंबई में मंगलवार को वर्ली के श्मशान घाट पर पारसी रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया गया। साइरस के शव को पारसियों के पारंपरिक कब्रिस्तान ‘दखमा’ या ‘टावर ऑफ साइलेंस’ में नहीं ले जाया गया। यानी उनकी पार्थिव देह को गिद्ध जैसे मांसाहारी पक्षियों के लिए नहीं छोड़ा गया।

इस एक्सप्लेनर में जानते हैं कि आखिर साइरस मिस्त्री का अंतिम संस्कार दखमा या टावर ऑफ साइलेंस में क्यों नहीं हुआ? क्या है दखमा से अंतिम संस्कार न करने की वजह?

पारसी समुदाय भारत में कहां से और कैसे आया?
दुनिया का एक बहुत छोटा, लेकिन बेहद सफल समुदाय है जरथुश्ट्र। इसे ही पारसी समुदाय के नाम से जाना जाता है। पारसी धर्म दुनिया के कुछ सबसे पुराने धर्मों में से एक है। इस समुदाय के लोग फारसी लोगों के वंशज हैं। इसे ही ईरान के नाम से जाना जाता है।

ये लोग 1000 साल पहले ही फारस में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों से बचने के लिए अपना देश छोड़कर भारत आ गए थे। पारसी समुदाय आगे चलकर भारत के सबसे अमीर लोगों का समूह बना। मुंबई के विकास में इनका बड़ा योगदान माना जाता है।

पारसी समुदाय के चमकते सितारों में उद्योगपति टाटा समूह से लेकर रॉकस्टार फ्रेडी मर्करी तक शामिल हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले फिरोजशाह मेहता, दादा भाई नौरोजी और भीकाजी कामा भी पारसी ही थे।

पारसियों की आबादी दुनियाभर में 1 से 2 लाख के बीच है। इनमें से सबसे ज्यादा 60,000 पारसी भारत में रहते हैं।

पारसियों के अंतिम संस्कार का पारंपरिक तरीका क्या है?
पारसियों के अंतिम संस्कार की परंपरा हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों से काफी अलग है। पारंपरिक रूप से पारसी न तो हिंदुओं की तरह अपने परिजनों के शव को जलाते हैं, न ही मुस्लिम और ईसाई की तरह दफन करते हैं।

पारसियों के अंतिम संस्कार की परंपरा 3 हजार साल पुरानी है। पारसियों के कब्रिस्तान को दखमा या ‘टावर ऑफ साइलेंस’ कहते हैं। ‘टावर ऑफ साइलेंस’ गोलाकार खोखली इमारत के रूप में होता है।

किसी व्यक्ति की मौत के बाद उन्हें शुद्ध करने की प्रक्रिया के बाद शव को टावर ऑफ साइलेंस में खुले में छोड़ दिया जाता है। पारसियों की अंत्येष्टि की इस प्रक्रिया को दोखमेनाशिनी कहा जाता है। इसमें शवों को आकाश में दफनाया जाता है, यानी शव के निपटारे के लिए उसे टावर ऑफ साइलेंस में खुले में सूरज और मांसाहारी पक्षियों के लिए छोड़ दिया जाता है।

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अंतिम संस्कार की प्रक्रिया में बदलाव की वजह क्या है?
आमतौर पर पारसी समुदाय अंतिम संस्कार के लिए टावर ऑफ साइलेंस में शव को खुले में छोड़ देते हैं। गिद्ध जैसे मांसाहारी पक्षी उस शव का मांस खा लेते हैं, लेकिन गिद्धों की आबादी तेजी से घटने से पारसी समुदाय के अंतिम संस्कार यानी दखमा को करना आसान नहीं रह गया।

एक्सपर्ट्स के मुताबिक,गिद्धों की प्रजातियों की आबादी पिछले कुछ सालों में करीब 99% तक घटी है। गिद्धों की आबादी घटने से मुंबई में रहने वाले कई पारसी अपने प्रियजनों की मौत के बाद उनके शवों के सम्मानपूर्वक निपटारे को लेकर चिंतित थे।

क्या है के अंतिम संस्कार से जुड़ी जेआरडी टाटा की कहानी?
मुंबई में पारसियों के लिए अंतिम संस्कार की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए पहले प्रार्थना हाल की नींव 1980 के दशक में प्रसिद्ध उद्योगपति जेआरडी टाटा की वजह से पड़ी थी। एक ऐसा प्रार्थना हाल, जहां पारसियों के अंतिम संस्कार के लिए शवों को दफनाने या दाह संस्कार की व्यवस्था हो।

1980 के दशक में जेआरडी टाटा ने अपने भाई बीआरडी टाटा के निधन के बाद मुंबई के म्यूनिसिपल कमिश्नर जमशेद कांगा से पूछा था कि उनके भाई के अंतिम संस्कार के लिए मुंबई में कौन सा श्मशान घर बेहतर रहेगा। दरअसल, प्रसिद्ध उद्योगपति होने की वजह से उनके अंतिम संस्कार में कई गणमान्य लोग आने वाले थे।

उस समय कुछ श्मशान घर बंद थे और उन्हें अपग्रेड किया जा रहा था, जबकि बाकी जर्जर हालत में थे। इस स्थिति से निपटने के लिए दादर में एक श्मशान घर को साफ कराया गया, लेकिन जब जमशेद कांगा जेआरडी टाटा को सांत्वना देने वहां गए, तो उनसे कहा गया कि मुंबई में श्मशान घर की सुविधाएं और बेहतर होनी चाहिए।

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मुंबई के कई श्मशान घरों में से वर्ली में स्थित श्मशान घर में काफी जगह थी और साउथ मुंबई में होने की वजह से पारसियों के लिए सुविधाजनक था। जमेशद कांगा ने वर्ली में ही एक प्रेयर हॉल बनाने की योजना बनाई, लेकिन इससे पहले कि प्रोजेक्ट शुरू हो पाता, उनका ट्रांसफर हो गया।

जमशेद कांगा ने ये मिशन छोड़ा नहीं और मुंबई में प्रभावशाली पारसियों के साथ मिलकर अंतिम संस्कार के वैकल्पिक तरीके की मांग के साथ ‘मृतकों का सम्मान के साथ निपटान’ नामक कैंपेन चलाया था। तब कांगा ने कहा था- ‘टावर ऑफ साइलेंस सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है और हमें विकल्प की जरूरत है।’

पारसियों के लिए श्मशान घर बनाने की मांग जोर पकड़ती गई। एक प्रस्ताव टावर ऑफ साइलेंस के पास ही श्मशान घर बनाने का भी रखा गया, लेकिन पारसियों की सबसे बड़ी रिप्रेजेंटेटिव बॉडी बॉम्बे पारसी पंचायत यानी BPP ने इसे स्वीकार नहीं किया।

वैकल्पिक अंतिम संस्कार का रास्ता अपनाने वालों को पारंपरिक पारसियों का विरोध झेलना पड़ा। दरअसल, टावर ऑफ साइलेंस के जरिए शवों के अंतिम संस्कार करने वालों को ही वहां बने प्रेयर हॉल में प्रार्थना की इजाजत दी गई। जिन लोगों ने शवों को कहीं और दफनाया या जलाया था, उन्हें टावर ऑफ साइलेंस के प्रेयर हॉल में जाने से रोक दिया गया। कहीं और शवों को दफनाने और जलाने वाले दो पारसी पुजारियों पर भी प्रार्थना हॉल में जाने पर रोक लगा दी गई।

इसके बाद 2015 में पारसियों के एक समूह ने म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के साथ मिलकर मुंबई के वर्ली में पारसियों के लिए श्मशान घर बनावाया।

बढ़ रहा दखमा के बजाय दफनाने या दाह संस्कार का चलन
अंग्रेजों के समय से पारसियों की जन्म, मृत्यु और शादी के रिकॉर्ड रखने वाली पर्सियाना मैगजीन के मुताबिक 2018 में मुंबई में कुल 720 पारसियों की मौत हुई थी, इनमें से 647 का अंतिम संस्कार दखमा से हुआ, जबकि करीब 11% यानी 73 पारसियों को दफनाया गया था।

दुनिया में पारसियों की आबादी 1.5 से 2 लाख के बीच है, जिनमें से 60-70 हजार पारसी भारत और 40-45 हजार पारसी मुंबई में रहते हैं। 1940 के दशक में भारत में पारसियों की आबादी 1 लाख थी, जो 2011 में घटकर 60 हजार रह गई थी। 2050 तक इनकी आबादी घटकर 40 हजार रह जाने का अनुमान है।

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पर्सियाना मैगजीन के मुताबिक, हाल के वर्षों में पारसियों के बीच दखमा के बजाय वैकल्पिक तरीके से अंतिम संस्कार कराने का चलन बढ़ा है।

पर्सियाना के मुताबिक, वर्ली प्रेयर हॉल खुलने से पहले मुंबई में पारसियों के दफनाने या दाह संस्कार से 6% अंतिम संस्कार होते थे। जबकि इसके खुलने के बाद ऐसे अंतिम संस्कार बढ़कर करीब 15% तक पहुंच गए।

अब पारसियों के पास अंतिम संस्कार के कौन से विकल्प हैं?

मुंबई में पारसियों के पास अब अंतिम संस्कार के 3 विकल्प हैं।

पहला-पारंपरिक दखमा यानी टावर ऑफ साइलेंस के जरिए अंतिम संस्कार करना।

दूसरा-शवों को दफनाना।

तीसरा-शवों का दाह संस्कार करना। साइरस मिस्त्री का अंतिम संस्कार तीसरे विकल्प के जरिए वर्ली स्थित श्मशान घर में दाह संस्कार के जरिए किया गया।

फिरोज गांधी ने जताई थी खुले में शव न छोड़ने की इच्छा
इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी भी पारसी थे। फिरोज ने अपनी मौत से पहले अपने दोस्तों से कहा था कि वो हिंदू तरीकों से अपनी अंत्येष्टि करवाना पसंद करेंगे, क्योंकि उन्हें अंतिम संस्कार का पारसी तरीका पसंद नहीं था, जिसमें शव को गिद्धों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता है।

8 सितंबर 1960 को फिरोज गांधी की मौत के बाद हुआ भी ऐसा। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के निगमबोध घाट में हिंदू रीति-रिवाज से किया गया था। उस वक्त 16 साल के राजीव गांधी ने फिरोज की चिता को आग लगाई थी।

हालांकि उनके पार्थिव शरीर को दाह संस्कार के लिए ले जाने से पहले कुछ पारसी रस्मों का भी पालन किया गया। जैसे जब फिरोज के शव के सामने पारसी रीति से ‘गेह-सारनू’ पढ़ा गया तो कमरे से इंदिरा और उनके दोनों बेटों के अलावा सब को हटा दिया गया। फिरोज के शव के मुंह पर एक कपड़े का टुकड़ा रख कर ‘अहनावेति’का पहला पूरा अध्याय पढ़ा गया।


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