बाबू भूलन सिंह: विचार,कर्म और संघर्ष से रचा पूर्वांचल का इतिहास
करिश्माई व्यक्तित्व के धनी स्वर्गीय बाबू भूलन सिंह की वास्तविक पहचान उनके महान विचार, महान कर्म और निस्वार्थ जीवन से बनी। छोटे से किसान परिवार से निकलकर उन्होंने पूर्वांचल में पत्रकारिता, सहकारिता और सामाजिक चेतना की ऐसी अलौकिक मशाल जलाई, जिसकी रोशनी आज भी समाज को दिशा दे रही है।

“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल,
मगर लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।”
‘बाबू साहब’ के नाम से विख्यात भूलन सिंह ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे कि जो भी उनके संपर्क में आता, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। साधारण परिवार में जन्मे बाबू भूलन सिंह असाधारण संकल्प और साहस के प्रतीक थे। आज उनकी 32 वीं पुण्यतिथि पर उनका व्यक्तित्व और कृतित्व स्वतः स्मरण हो उठता है। मशहूर शायर इक़बाल की पंक्तियाँ उन पर सटीक बैठती हैं। “बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।”
वाराणसी के बड़ागांव क्षेत्र के छोटे से गांव पतेर में किसान लालता सिंह के घर जन्मे बाबू भूलन सिंह दो भाइयों में बड़े थे। कक्षा चार तक की औपचारिक शिक्षा के बाद उन्होंने मुनीब की तालीम लेकर जीवन की शुरुआत की। इस कार्य में वे इतने दक्ष हो गए कि विशेश्वरगंज क्षेत्र में उनके समान मुनीब विरले ही मिलते थे। किंतु उनका सपना इससे कहीं बड़ा था। कांग्रेस से प्रभावित होकर वे सक्रिय कार्यकर्ता बने और सहकारिता के क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि चुना।
पंडित ब्रह्मदेव मिश्र जैसे सहकारिता क्षेत्र के दिग्गजों के साथ मिलकर उन्होंने जिला सहकारी बैंक, जिला सहकारी फेडरेशन लिमिटेड, क्रय-विक्रय, होलसेल, नगरीय सहकारी बैंक सहित अनेक संस्थाओं की स्थापना पूरे पूर्वांचल में की। इन संस्थाओं के माध्यम से किसानों को समय पर खाद-बीज और उपभोक्ताओं को सस्ते उत्पाद उपलब्ध हुए। सहकारिता आंदोलन ने व्यापक स्वरूप लिया और समाज निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। बाबू भूलन सिंह की अगुवाई में किसानों को कभी खाद-बीज की किल्लत नहीं हुई और खेत-खलिहान लहलहा उठे।
वे उत्तर प्रदेश को-ऑपरेटिव बैंक तथा भारत सरकार की कई महत्वपूर्ण सहकारी समितियों में शीर्ष पदों पर रहे। उनकी विशेषता थी निस्वार्थ सेवा, निर्छल स्वभाव और स्पष्टवादिता। काशी में लोग उन्हें ‘शंकर’ भी कहते थे,क्योंकि वे कपट से दूर, सरल और सबके अपने थे। उन्होंने कभी अपने लिए नहीं, केवल समाज के लिए जिया।
एक घटना ने उन्हें पत्रकारिता की ओर प्रेरित किया। जब एक बड़े अखबार ने सहकारिता से जुड़ी खबरों को महत्व नहीं दिया, तो बाबू साहब ने स्वयं अखबार निकालने का निर्णय लिया। उस दौर की उक्ति थी-“खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो; जब तोप मुक़ाबिल हो, तो अख़बार निकालो।”
1968 में लीज पर लेकर उन्होंने ‘सन्मार्ग’ का सफल प्रकाशन किया। इसके बाद 1972 में वाराणसी से ‘जनवार्ता’ का प्रकाशन शुरू हुआ। जनवार्ता ने पूर्वांचल के आंदोलनों को आवाज दी, वंचितों की पीड़ा को मंच दिया और देखते ही देखते जन-जन का अखबार बन गया। इमरजेंसी, हरित क्रांति और सहकारिता आंदोलन में जनवार्ता की भूमिका ऐतिहासिक रही। इमरजेंसी के दौरान जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि उनके विचारों को समझने के लिए जनवार्ता पढ़ा जाए। उस समय संपादक श्यामा प्रसाद प्रदीप ने संपादकीय कॉलम खाली रखकर सरकार को मौन संदेश दिया।
श्यामा प्रसाद ‘प्रदीप जी’,पंडित ईश्वर देव मिश्र, ईश्वरचंद्र सिन्हा, धर्मशील चतुर्वेदी,पंडित मनु शर्मा जैसे वरिष्ठ पत्रकार दशकों तक जनवार्ता से जुड़े रहे। बाबू साहब अपने कर्मचारियों को परिवार का सदस्य मानते थे और हर निर्णय सामूहिक चर्चा से लेते थे। यही कारण था कि संस्थान में पारिवारिक वातावरण और उच्च गुणवत्ता का कार्य संभव हुआ। उन्होंने उर्दू दैनिक ‘आवाज़-ए-मुल्क’ और सांध्य हिंदी दैनिक ‘काशीवार्ता’ का भी सफल प्रकाशन किया, जिससे गंगा-जमुनी तहज़ीब की सशक्त मिसाल बनी।
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय, राजनाथ सिंह सहित अनेक शीर्ष नेता महत्वपूर्ण मामलों में बाबू भूलन सिंह से सलाह लेते थे। जीवन भर वे कांग्रेस के सच्चे सिपाही रहे और संगठन को अपनी क्षमता से मजबूत किया।
सामाजिक आंदोलनों में भी उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही। मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष, हरिजनों के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश और पूजन जैसे आंदोलनों में वे अग्रणी रहे। वे सभी को समान मानते थे और संबंधों को जीवन का केंद्र मानते थे।
बाबू साहब द्वारा स्थापित संस्थाएं आज भी उनके बनाए मापदंडों पर चलते हुए समाज सेवा कर रही हैं। जनवार्ता हिंदी दैनिक और www.janwarta.com पत्रकारिता में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं। जनवार्ता का चैनल janwarta-live और सोशल मीडिया प्लेटफार्म की पहुंच प्रतिदिन लाखों पाठकों,दर्शकों तक है। आज बाबू साहब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके दिखाए सत्य, ईमानदारी और सिद्धांतों के मार्ग पर चलना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है। भले ही भौतिक दौड़ में हम पीछे हों, पर मूल्यों से समझौता नहीं। इसी में हमारा गर्व है।
बाबूजी, आप आज भी हमारे बीच अपने विचारों और कर्मों के रूप में जीवित हैं।
यदि आज बाबू साहब होते, तो शायद यही कहते-
डा राज कुमार सिंह-पौत्र
(संपादक, जनवार्ता)

