250 साल पुरानी परंपरा बंगाल के परिवार ने काशी में जगाई दुर्गा पूजा की ज्योति

250 साल पुरानी परंपरा बंगाल के परिवार ने काशी में जगाई दुर्गा पूजा की ज्योति

करीब ढाई सौ साल पहले 1773 ईस्वी में बंगाली ड्योढ़ी से ही बनारस में सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी। 250 वर्ष पहले रोपा गया यह बीज वटवृक्ष का स्वरूप ले चुका है और स्थिति यह है कि जिलेभर में 500 अधिक प्रतिमाएं विराजमान होती हैं। 

शक्ति की आराधना के बिना शिव की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती है। कुछ ऐसा ही कहानी है दुर्गा पूजा की। दुर्गा पूजा का गढ़ भले ही कोलकाता है, लेकिन काशी को भी मिनी बंगाल कहा जाता है। काशी में दुर्गा पूजा की शुरुआत करने का श्रेय भी बंगाली परिवार को ही जाता है। मित्रा परिवार ने ही शारदीय नवरात्र में काशी को शक्ति की आराधना का मंत्र दिया था, जिसका प्रभाव आज भी है।

केंद्रीय पूजा समिति के अध्यक्ष तिलकराज मिश्रा ने बताया कि बंगाल के मित्रा परिवार ने ही काशी में दुर्गा पूजा के परंपरा की नींव डाली थी। 250 वर्ष पहले रोपा गया यह बीज वटवृक्ष का स्वरूप ले चुका है और स्थिति यह है कि जिलेभर में 500 अधिक प्रतिमाएं विराजमान होती हैं। पूजा समिति के लोग गंगा की मिट्टी से ही माता की प्रतिमा, गणेश, कार्तिकेय और भगवान राम की प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं।

माता के लिए 18वीं सदी में चांदी का सिंहासन बना

वीरभद्र मित्रा ने बताया कि कोलकाता के गोविंद राम मित्र के प्रपौत्र आनंद मित्र जब काशी आए तब इन्होंने चौखंभा में एक भव्य हवेली बंगाली ड्योढ़ी के नाम से बनवाई। 1773 में बनारस की सबसे पहली दुर्गा पूजा शुरू की। उनके पुत्र राजेंद्र मित्रा ने दुर्गा पूजा को भव्य स्वरूप दिया। उन्होंने माता के लिए 18वीं सदी में चांदी का सिंहासन बनवाया था। इसके लिए फ्रांस से कारीगर बनारस आए थे।

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उस समय माता की प्रतिमा पर सोने का पत्तर चढ़ाया जाता था। आज भी उसी सिंहासन पर माता को विराजमान कराया जाता है। रजत सिंहासन पर लक्ष्मी, दुर्गा, शिव, राम, गणेश, काली जी की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं।

सबसे पहले विसर्जित होती थी बंगाली ड्योढ़ी की प्रतिमा

केंद्रीय पूजा समिति के अध्यक्ष तिलकराज मिश्र ने बताया कि कई साल तक प्रतिमाओं के विसर्जन के दौरान सबसे बंगाली ड्योढ़ी की प्रतिमा विसर्जित होती थी और उसके बाद ही शहर की दूसरी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता था। बंगाली ड्योढ़ी से माता की विदाई महापाया पालकी में की जाती है। यह परंपरा अनवरत चली आ रही है, जो आज भी कायम है।

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