नई दिल्ली। अगर नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को देखें तो बिहार में नीतीश कुमार सुशासन के फ्रंट पर फेल होते नजर आते हैं। अब तो मर्डर, किडनैपिंग जैसे जघन्य अपराधों की तुलना लालू यादव और राबड़ी देवी के कार्यकाल से की जाए तो अपराध के मामले में नीतीश कुमार का पलड़ा भारी लगता है। ये खतरनाक संकेत हैं क्योंकि बिहार में अपराधियों और आतंकवादियों का नेक्सस बन गया तब क्या होगा।
नीतीश कुमार के पास पुलिस मुख्यालय की कमान है
बेगूसराय: गोलियों की तड़तड़ाहट से बिहार हैरान है, बेगूसराय लहूलुहान है क्योंकि बिहार में बदली हुई सरकार है? क्या कामदेव सिंह और अशोक सम्राट वाला काल आ रहा है? ये सवाल है जो विपक्ष का नेता नहीं आम आवाम पूछ रही है। ऐसा क्या हो जाता है जब राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सत्ता में आती है? क्यों पुलिस का इकबाल खत्म हो जाता है। बाहुबली नेताओं के रिश्तेदारों की भुजाएं फड़कने लगती हैं। आतंक के मास्टर साहब सरकार से निकल भी जाएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। भाजपा नेता सत्यनारायण सिन्हा के मर्डर के आरोपी अपराधी रीतलाल यादव को बालू के ठेके की जल्दी होती है तो लालू यादव के कबाब मंत्री रहे अनवर अहमद लाडलों को छुड़ाने के लिए डीएसपी को देख लेने की धमकी देते हैं। क्या मनोबल बचेगा सूबे की उस पुलिस का जो लालू के जंगलराज में नेताओं की जूते की नोक साफ किया करते थे। वो दौर तो आज भी आईएएस-आईपीएस अफसरों के जेहन में होगा। कैसे राबड़ी देवी के तीनों भाई अफसरों के चैंबर में सीधा करते थे।
भगवतिया देवी जैसी विधायक एसपी रैंक के अफसर को चप्पल दिखातीं और शोभा अहोतकर जैसी लेडी आईपीएस अफसर के साथ बदसलूकी हुआ करती थी। आईएएस अधिकारी किसी और के लिए खैनी रगड़ते थे। तो बदला क्या है। लालू के साले चले गए। बेटे तैयार हैं। मैं तो दाद दूंगा सोनू का। वही वायरल सोनू जिसने नीतीश कुमार से सवाल पूछ लिया था। जब तेज प्रताप यादव ने उससे पूछा आईएएस बनकर मेरे अंदर काम करोगे तो उसने तपाक से जवाब दिया – मैं किसी के अंदर काम नहीं करूंगा। तो क्या बदला भईया। 2005 के बाद 2022 में भी तौर तरीके तो नहीं बदले। तेजस्वी यादव ने 2020 के चुनाव में दीवारों और पोस्टरों से पिताजी को पीछे जरूर किया लेकिन विरासत सिर्फ संबंधों की नहीं संस्कारों की भी सौंपी जाती है। अगर सुधर गए रहते तो 2015-17 के बीच संकेत भी मिल गए रहते। जब सुशासन बाबू नीतीश कुमार और लालू यादव की महागठबंधन सरकार बनी। लेकिन हुआ क्या। नीतीश कुमार की ढिलाई से शहाबुद्दीन की रिहाई। भागलपुर जेल से सीवान तक गुंडागर्दी का काफिला सारे नाकों और टोल के नियम कानूनों को तक पर रखते हुए सीवान लौटा। संकेत तो पहले ही मिल गए थे जब डॉन ने लालू को बोला कि सीवान का एसपी खतम है। और ये ऑडियो लीक हो गया। तब तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम थे और आज भी डिप्टी सीएम हैं। मुख्यमंत्री तो बिहार में बदलते नहीं। मैं तो मानता हूं कि अगर नीतीश जी क्रिकेट खेलते तो इतिहास में ऐसे बोलर साबित होते जिनकी गेंद टप्पा खाने के बाद यू-टर्न होती है।
आज जब हम बात कर रहे हैं तो आतंकवाद पटना तक आ पहुंचा है। पॉप्युलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई का फुलवारीशरीफ मॉड्यूल अभी अभी सामने आया है। जरा सोचिए, अगर आतंकवाद ने बिहार में अपराध से हाथ मिला लिया तो क्या होगा?
आलोक कुमार
खैर,नीतीश कुमार लहूलहुान बिहार के सबसे बड़े गुनहगार हैं। इसलिए कि सूबे के मुखिया हैं। गृह मंत्रालय 2005 से अब तक अपने पास रखते हैं। पहले कार्यकाल में बेस्ट गवर्नेंस का सम्मान पाने के बाद उनको यही लगता है कि 2022 में भी बिहार में सब ठीक है। अपराध कम है। रिपोर्टिंग बढ़ी हुई है। जब आठवीं बार तेजस्वी के साथ सरकार बनाई तो 24 घंटे में तीन मर्डर हुए। गोपालगंज और पटना में पुलिस पेट्रोलिंग पार्टी पर अटैक हुआ। बेगूसराय में तो हद हो गई। कैसे दो सिरफिरे तेघड़ा से सिमरिया तक लगातार फायरिंग करते हैं। 30 किलोमीटर की दूरी और 40 मिनट का वक्त। बिहार को लखनऊ से जोड़ने वाले एनएच 28 पर कहीं कोई पेट्रोलिंग नहीं, सीसीटीवी नहीं। एसपी को ये भी नहीं पता कि गोली पिस्टल से चली या कट्टे से जबकि धंसी 10 लोगों के जिस्म में। और अगर गृह मंत्रालय पास है तो दिल्ली से गिरिराज सिंह पहुंच गए, पर नीतीश कुमार कहां हैं? क्या घटना के तुरंत बाद उन्हें एक्टिव नहीं होना चाहिए था?
रिपोर्टिंग बढ़ी या अपराध,जान लीजिए
क्या बदला है नीतीश के रहते? साल 2000 में जब राबड़ी देवी राज था तब बिहार में 1570 रेप हुए। और, 2021 में 1439। इस साल तो हाल हर महीने खराब होता जा रहा है क्योंकि नीतीश कुमार पटना से भागलपुर, गया, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर के बदले दिल्ली का सपना देख रहे हैं। राजनैतिक वजूद को बचाने के चक्कर में क्राइम परवान चढ़ रहा है। इस साल जून तक रेप की 785 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। तेजस्वी के साथ वाले काल की गिनती तो अभी बाकी है। किडनैपिंग देखिए। 2003 में 674 और 2021 में 10 हजार 254 किडनैपिंग। अब नीतीश कुमार ही बताएं कि रिपोर्टिंग तब ज्यादा होती थी या अब। अब कुछ तुलना 2001 से 2021 की हो जाए जिसे पुलिस की उपलब्धियों के नाम पर पब्लिक किया गया है। 2001 में 20 अपराधी पुलिस एनकाउंटर में मारे गए। 2021 में सिर्फ आठ। चलिए मान लेते हैं अपराध घट गया है इसलिए एनकाउंटर कम हो गए। तब तो अवैध हथियारों की बरामदगी भी घटनी चाहिए। तो चौंकने के लिए तैयार रहें। 2001 में 2992 हथियार पकड़े गए तो 2021 में 3953। जब हथियार ज्यादा हैं तो ये शांति बनाए रखने के लिए होंगे, समझना मुश्किल है। मिनी गन फैक्ट्री का डेटा देखते हैं। 2001 में 25 पकड़े गए तो 2021 में 32 फैक्ट्रियां। आपको याद होगा 2018 में कैसे जबलपुर हथियार डिपो से खराब एके-47 मुंगेर पहुंचने लगे और वहां की फैक्ट्रियों से अपराधियों के घर।
समझना मुश्किल है लालू-राबड़ी बेहतर थे या नीतीश
2005 की ऐतिहासिक रैली में गांधी मैदान से जब अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा – मेरा किसलय मुझे लौटा दो… तो भावनाओं का जनज्वार उमड़ पड़ा। ये रैली नीतीश के लिए थी। आज चंपारण की धरती रक्तरंजित हो रही है। जूलरी और एटीएम कब लुट जाए कहना मुश्किल है। अगर नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के 2021 के आंकड़ों को देखें तो बिहार मर्डर के मामले में दूसरे पायदान पर है। बिहार में 2799 की हत्याएं इस साल हुई। लालू के जंगलराज में सीडी-100 शाम से पहले पार्क होता था। अब यही हाल ग्लैमर का है। सुशासन बाबू 2010 तक इस पर लगाम लगाने में कामयाब रहे लेकिन तीसरे टर्म के बाद से ही उनकी ये छवि धूमिल हुई है। इसकी शुरुआत 2012 से ही हो गई थी। एक जनवरी को ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या हुई और उसके बाद अंतिम संस्कार के नाम पर पटना में अताताइयों ने जमकर बवाल काटा।
अगले साल गया में बम ब्लास्ट हुए। राज्य के कई हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। रही सही कसर शराबबंदी कानून ने पूरी कर दी। आप-हमने वो तस्वीरें भी देखी हैं कि कैसे बच्चों से स्कूली बैग में शराब की तस्करी कराई जा रही है। शराब माफियाओं ने पूरे प्रदेश में कहर बरपा रखा है। पुलिस खुद इनका शिकार बन रही है। गोपालगंज की घटना तो ताजा है। समस्तीपुर,बेगूसराय हर जगह पुलिस मैनेज नहीं हुई तो धावा बोलने वाली टीम पर ही कातिलाना हमला होता है। अब तक नीतीश कुमार की पार्टी इन माफियाओं के किसी एक जाति से जोड़कर आरजेडी पर हमले करती थी। अब ये क्या जवाब देंगे। एक और बड़ा सवाल है। बेगूसराय मर्डर और किडनैपिंग से इतर बिहार इस्माली जिहादियों का गढ़ कैसे बना, इसका जवाब भी नीतीश कुमार को देना चाहिए। 2013 में इंडियन मुजाहिदीन का दरभंगा मॉड्यूल जब बस्ट हुआ तो पहली बार पता चला कि आतंक की जड़ें बुद्ध की धरती में पांव जमा रही हैं। लेकिन बिहार में तो एटीएस शायह है भी नहीं। एसआईटी जरूर है। जो न 2013 के बोधगया ब्लास्ट को रोक पाई और न ही इसी साल पटना गांधी मैदान में नरेंद्र मोदी की सभा में हुए सीरियल ब्लास्ट को रोक पाई। आज जब हम बात कर रहे हैं तो आतंकवाद पटना तक आ पहुंचा है। पॉप्युलर फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएफआई का फुलवारीशरीफ मॉड्यूल अभी अभी सामने आया है। जरा सोचिए, अगर आतंकवाद ने बिहार में अपराध से हाथ मिला लिया तो क्या होगा?