अबॉर्शन,भ्रूण हत्या,मुर्दा बच्चों का जन्म या नवजातों की मौत के सबसे ज्यादा मामले,’ज्यादा बच्चे पैदा करें’…
नई दिल्ली। जनसंख्या विस्फोट और आबादी प्रबंधन के बहस के बीच देश में कई तरह के जरूरी और चुभने वाले सवाल भी उभरने लगे हैं। देश में पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने ज्यादा बच्चे ही अच्छे का बयान देकर बहस को हवा दी थी। हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने तीन बच्चों का आंकड़ा बताकर इसे ज्वलंत मुद्दा बना दिया।
‘ज्यादा बच्चे पैदा करें’ की बहस…
देश में ‘ज्यादा बच्चे पैदा करें’ की बहस की बीच अबॉर्शन, भ्रूण हत्या,मुर्दा बच्चों का जन्म या नवजातों की मौत के दुनिया में सबसे ज्यादा मामले होने की चर्चा सतह पर आ गई है। मेडिकल जगत में नई-नई खोज और तेज प्रगति के साथ ही तमाम सरकारी दावों के बावजूद इन बेहद अहम और जरूरी मुद्दों को अब तक सुलझाया नहीं जा पाया है। आइए,जानते हैं कि दुनिया में मृत बच्चों के जन्म के मामले में सबसे ज़्यादा योगदान देने वाला देश भारत भ्रूण हत्या और नवजातों की मृत्यु दर को कैसे रोक सकता है?
हेल्थ एक्सपर्ट के मुताबिक, व्यक्तिगत रिकॉर्ड में मृत जन्मों से जुड़े मामले में उच्च गुणवत्ता वाले डेटा से मातृ स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों, जैसे कि उच्च रक्तचाप, गर्भकालीन मधुमेह, संक्रमण और कुपोषण की बेहतर ट्रैकिंग में योगदान मिल सकता है। क्योंकि हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंता होने के बावजूद, मृत जन्मों को मातृ और नवजात मृत्यु दर जैसे अन्य स्वास्थ्य मापदंडों की तुलना में कम ध्यान दिया जाता है।
सामाजिक कलंक से जोड़ा गया है मृत जन्म
दूसरी ओर, मृत जन्मों को सामाजिक कलंक से जोड़ा गया है, जिसमें शोक करने के लिए भी बहुत कम समर्थन मिल पाता है। मृत जन्मों के कारण न केवल नवजात के माता-पिता और परिवारों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है, बल्कि उनके मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही वित्तीय हालत पर भी असर पड़ता है। हाल ही में लैंसेट की एक रिपोर्ट ने भारत में मृत जन्म महामारी विज्ञान के मुद्दे को संबोधित करने के लिए डेटा जारी किया है। इसमें भारत में मृत जन्मों के बोझ, महिलाओं पर चिकित्सा का प्रभाव और इसकी रोकथाम को समझाया गया है।
मृत जन्म या स्टीलबर्थ क्या हैं?
गर्भावस्था के सामान्य परिणामों में से एक मृत जन्म है। भ्रूण मृत्यु को ऐसे शिशु के रूप में परिभाषित किया जाता है जो प्रसव से पहले (प्रसवपूर्व) या प्रसव के बाद (प्रसवोत्तर) बिना किसी जीवन लक्षण (रोना, सांस लेना या दिल की धड़कन नहीं होना) के साथ पैदा हुआ हो। भारत में, मृत जन्म को 28 सप्ताह या उससे अधिक समय के गर्भ में जीवन के लक्षण के बिना पैदा हुए बच्चे के रूप में परिभाषित किया जाता है। मृत जन्म दर प्रति 1,000 जन्मों में 28 सप्ताह या उससे अधिक समय के गर्भ में जीवन के लक्षण के बिना पैदा हुए शिशुओं की कुल संख्या है।
भारत में सबसे अधिक मृत जन्म
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी ने 2021 में भारत में 20 सप्ताह या उससे अधिक के गर्भ में 567,000 मृत जन्म और 28 या उससे ज्यादा सप्ताह के गर्भ में 397,300 मृत जन्म का अनुमान लगाया है। वैश्विक स्तर पर यह सबसे अधिक है। हालांकि, भारत में मृत जन्म में कमी आई है, लेकिन इस कमी की गति बेहद धीमी है। भारत ने ग्लोबल एवरी न्यूबॉर्न एक्शन प्लान के प्रति प्रतिबद्धता के प्रति एकल-अंकीय मृत जन्म दर के लिए प्रतिबद्धता जताई है, जिसका मकसद 2030 तक 28 सप्ताह या उससे अधिक समय की गर्भ अवधि के मृत जन्म दर को 1000 जन्मों में 12 से कम करना है।
कारण और जोखिम क्या हैं?
मृत जन्म पर डेटा को समझने में एक आम बाधा गर्भवती महिलाओं की देखभाल की निरंतरता में मेडिकल ट्रीटमेंट डेटा की खराब उपलब्धता है। क्योंकि यह सीमित परिणामी समझ के लिए सर्वेक्षणों में मां की स्वयं की रिपोर्ट पर निर्भरता से अच्छी तरह से उजागर होती है। देश में ज्यादातर मृत जन्मों को रोका जा सकता है। आंकड़ों के मुताबिक, लगभग 25 प्रतिशत मृत जन्म मातृ स्वास्थ्य विकारों जैसे एनीमिया, कुपोषण, जीवनशैली संबंधी बीमारियों और उम्र के काफी ज्यादा होने के कारण होते हैं।
20 फीसदी मृत जन्मों के कारण अस्पष्ट या पता नहीं
वहीं,लगभग 20 प्रतिशत भ्रूण मृत्यु जन्मजात दोषों या अनुचित भ्रूण विकास के कारण होती है। इसके अलावा, भ्रूणों की 13 प्रतिशत मौत प्लेसेंटल रोगों के कारण होती हैं। हालांकि,अभी भी 20 फीसदी मृत जन्म के मामले हैं, जिनके कारण “अस्पष्ट” होते हैं या “पता नहीं” चल पाते हैं। यह मुद्दा मृत जन्मों का विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक प्रक्रिया की सख्त आवश्यकता को उजागर करता है। द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, मृत जन्म की घटनाओं के अन्य कारणों में ग्रामीण आवासीय स्थिति, निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर और प्रसवपूर्व देखभाल का खराब उपयोग शामिल है।
माताओं पर कैसा होता है मृत जन्मों का प्रभाव?
मृत जन्म का अनुभव करने वाली महिलाएं और उनके जीवनसाथी अवसाद, चिंता और अन्य मनोवैज्ञानिक लक्षणों की उच्च दर से पीड़ित होते हैं जो लंबे समय तक चल सकते हैं। यह न केवल माता-पिता के जीवन और मृत्यु के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकता है, बल्कि उनके आत्मसम्मान और पहचान को भी तबाह कर सकता है। मृत जन्म का अनुभव करने वाली कई महिलाएं खुद को सामाजिक रूप से अलग-थलग कर सकती हैं। ये नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव उनकी बाद की गर्भावस्थाओं में भी जारी रह सकते हैं। यहां तक कि स्वस्थ बच्चे के जन्म के बाद भी उनको पुरानी तकलीफ रह-रहकर यद आती रहती है।
परिवार के वित्तीय हालत पर भी होता है बुरा प्रभाव
इसके अलावा, मृत जन्म परिवार के वित्तीय हालत को खास तौर पर प्रभावित कर सकते हैं, जिससे प्रसव अवधि के दौरान और बाद के समय में अधिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। मृत जन्म का महिला के प्रजनन स्वास्थ्य पर महत्वपूर्णऔर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। जिन महिलाओं को मृत शिशु जन्म होता है, उनमें अगली गर्भावस्था में पुनः मृत शिशु जन्म होने का जोखिम लगभग पांच गुना अधिक होता है। साथ ही उनके लिए गर्भावस्था की अन्य जटिलताओं का भी खतरा बढ़ जाता है।
मृत जन्मों को कैसे रोका जा सकता है?
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा मृत जन्मों की महामारी विज्ञान, निदान और रोकथाम, तथा स्वास्थ्य प्रणाली में डेटा चुनौतियों को मैनेज करने का प्रयास स्पीड पकड़ रहा है। इस तरह के निवेश सामाजिक-आर्थिक बाधाओं और सांस्कृतिक वर्जनाओं को प्रभावित कर सकते हैं जो मृत जन्म दरों में योगदान करते हैं। साइंस डायरेक्ट के एक आर्टिकल के अनुसार, व्यक्तिगत रिकॉर्ड में उच्च गुणवत्ता वाले डेटा से मातृ स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों, जैसे उच्च रक्तचाप, गर्भकालीन मधुमेह, संक्रमण और कुपोषण की बेहतर ट्रैकिंग में योगदान मिल सकता है, जो अक्सर मृत जन्मों सहित खराब गर्भावस्था परिणामों से जुड़े होते हैं।
BMJ ग्लोबल हेल्थ के एक आर्टिकल के मुताबिक, सटीक और व्यापक डेटा का उपयोग कर भारत मृत जन्मों को रोकने, मातृ और नवजात स्वास्थ्य को बढ़ाने और अपनी वैश्विक स्वास्थ्य प्रतिबद्धताओं को प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठा सकता है। मेडिकल एक्सपर्ट इस मामले में गर्भावस्था के दौरान फोलिक एसिड सप्लीमेंटेशन, सिफलिस और मलेरिया जैसे संक्रमणों का जल्द पता लगाना, मधुमेह प्रबंधन और गर्भावस्था के दौरान उच्च रक्तचाप संबंधी विकारों का पता लगाना, प्रसव के दौरान देखभाल, विवेकपूर्ण परिवार नियोजन और पौष्टिक आहार जैसे निवारक उपायों का सुझाव देते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मृत जन्मों को रोकने के लिए एक पीडियाट्रिशियन (बाल रोग विशेषज्ञ) या न्यूनैटोलॉजिस्ट (नवजात रोग विशेषज्ञ) को शिशु में रोगों का मूल्यांकन करना चाहिए; एक पैथोलॉजिस्ट (रोगविज्ञानी) और माइक्रोबायोलॉदिस्ट (सूक्ष्म जीव विज्ञानी) को ऑब्स्टेट्रिशियन (प्रसूति विशेषज्ञ) के साथ मिलकर प्लेसेंटा का अध्ययन करना चाहिए।